Lekhika Ranchi

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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद



अब तो अमृराय को चिंता होने लगी कि अगर कोई न आया तो मेरी बड़ी बदनामी होगी और सबसे लज्जित होना पड़ेगा निदान इसी तरह पॉँच बज गए और किसी उत्साही पुरुष की सूरत न दिखाई दी। तब ता अमृतराय को विश्वास हो गया कि लोगों ने मुझे धोखा दिया। मुंशी गुलजरीलाल से उनको बहुत कुछ आशा थी। अपना आदमी उनके पास दौड़ाया। मगर उसने लौटकर बयान किया कि वह घर पर नहीं है, पोलो खेलने चले गये। इस समय तक छ: बजे और जब अभी तक कोई आदमी न पधारा तो अमृतराय का मन बहुत मलिन हो गया। ये बेचारें अभी नौजवान आदमी थे और यद्यपि बात के धनी और धुन के पूरे थे मगर अभी तक झूठे देशभक्तों और बने हुए उद्योगियों का उनको अनुभव न हुआ था। उन्हें बहुत दु:ख हुआ। मन मारे हुए चारपाई पर लेट गये और सोचने लगे की अब मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य नहीं रहा। मैं इन लोगों को ऐसा कटिल और कपटी नहीं समझता था। अगर न आना था तो मुझसे साफ-साफ कह दिया होता। अब कल तमाम शहर में यह बात फैल जाएगी कि अमृतराय रईसों के घर दौड़ते थे, मगर कोई उनके दरवाजे पर बात पूछने को भी न गया। जब ऐसा सहायक मिलेगे तो मेरे किये क्या हो सकेगा। इन्हीं खयालों ने थोड़ी देर के लिए उनके उत्साह को भी ठंडा कर दिया।

मगर इसी समय उनको लाला धनुषधारीलाल की उत्साहवर्धक बातें याद आयीं। वही शब्द उन्होंने लोगो के हौसले बढ़या थे, उनके कानों में गूँजने लगे—मित्रो, अगर जाति की उन्नति चाहते हो तो उस पर सर्वस्व अर्पण कर दो। इन शब्दों ने उनके बैठते हुए दिल पर अंकुश का काम किया। चौंक कर उठ बैठे, सिगार जला लिया और बाग की क्यारियों में टहले लगे। चॉँदनी छिटकी हुई थी। हवा के झोंके धीरे-धीरे आ रहे थे। सुन्दर फूलों के पौधे मन्द-मन्द लहरा रहे थे। उनकी सुगन्ध चारों ओर फैली हुई थी। अमृतराय हरी-हरी दूब पर बैठ गये और सोचने लगे। मगर समय ऐसा सुहावना था और ऐसा अनन्ददायक सन्नाटा छाया हुआ था कि चंचल चित्त प्रेमा की ओर जा पहुँचा। जेब से तसवीर के पुर्जें निकाल लिये और चॉँदनी रात में उसी बड़ी देर तक गौर से देखते रहे। मन कहता था—ओ अभागे अमृतराय तू क्योंकर जियेगा। जिसकी मूरत आठों पहर तेरे सामने रहती थी, जिसके साथ आनन्द भोगने के लिए तू इतने दिनों विराहागिन में जला, उसके बिना तेरी जान कैसी रहेगी? तू तो वैराग्य लिये है। क्या उसको भी वैरागिन बनायेगा? हत्यारे उसको तुझे सच्चा प्रेम हैं। क्या तू देखता नहीं कि उसके पत्र प्रेम में डूबे हुए रहते है। अमृतराय अब भी भला है। अभी कुछ नहीं बिगड़ा। इन बातों को छोड़ो। अपने ऊपर तरस खाओ। अपने अर्मानों के मिट्टी में न मिलाओ। संसार में तुम्हारे जैसे बहुत-से उत्साही पुरुष पड़े हुए है। तुम्हारा होना न होना दोनों बराबर है। लाला बदरीप्रसाद मुँह खोले बैठे है। शादी कर लो और प्रेमा के साथ प्रेम करो। (बेचैन होकर) हा मैं भी कैसा पागल हूँ। भला इस तस्वरी ने मेरा क्या बिगाड़ा था जो मैंने इसे फाड़ा डाला। हे ईश्वर प्रेमा अभी यह बात न जानती हो।

अभी इसी उधेड़बुन में पड़े हुए थे कि हाथों में एक ख़त लाकर दिया। घबराकर पूछा—किसका ख़त है?
नौकर ने जवाब दिया—लाला बदरीप्रसाद का आदमी लाया है।
अमृतराय ने कॉँपते हुए हाथों से पत्री ली और पढ़ने लगे। उसमें लिखा था—
‘‘बाबू अमृतराय, आशीर्वाद
हमने सुना है कि अब आप सनात धर्म को त्याग करके ईसाइसायों की उस मंडली में जो मिले हैं जिसको लोग भूल से सामाजिक सुधार सभा कहते है। इसलिए अब हम अति शोक के साथ कहते हैं कि हम आपसे कोई नाता नहीं कर सकते।
आपका शुभचिंतक
बदरीप्रसाद ।’’

इस चिट्टी को अमृतराय ने कई बार पढ़ा और उनके दिल में अग खींचातानी होने लगी। आत्मस्वार्थ कहता था कि इस सुन्दरी को अवश्य ब्याहों और जीवन के सुख उठाइओ। देशभक्ति कहती थी जो इरादा किया है उस पर अड़े रहो। अपना स्वार्थ तो सभी चाहते है। तुम दूसरों का स्वार्थ करो। इस अनित्य जीवन को व्यतीत करने का इससे अच्छा कोई ढंग नहीं है। कोई पन्द्रह मिनट तक यह लड़ाई होती रही। इसका निर्णय केवल दो अक्षर लिखने पर था। देशभक्त ने आत्मसवार्थ को परास्त कर दिया था। आखिर वहॉँ से उठकर कमरे मे गये और कई पत्र कागज ख़बर करने के बाद यह पत्र लिखा—
‘‘महाशय, प्रणाम
कृपा पत्र आया। पढ़कर बहुत दु:ख हुआ। आपने मेरी बहुत दिनों की बँधी हुई आशा तोड़ दी। खैर जैसा आप उचित समझे वैसा करें। मैंने जब से होश सँभाला तब से मैं बराबर सामाजिक सुधार का पक्ष कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि हमारे देश की उन्नती का इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है। आप जिसको सनातन धर्म समझे हुए बैठै है, वह अविद्या और असभ्यता का प्रत्यक्ष सवरुप है।
आपका कृपाकांक्षी
अमृतराय।

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